पूंजीवाद के लिए मरते मजदूर

पूंजीवाद के लिए मरते मजदूर

चमचमाते इमारतों के पीछे,
छिपी है एक स्याही की कहानी,
मज़दूरों के पसीने से सींची,
जो खो देते हैं अपनी जवानी।

पूंजी के खेल में फंसे हैं वो,
जिनके हाथों में है सृजन का सपना,
पर उनके हिस्से आती है मौत,
क्योंकि मशीनों से लड़ना है अपना।

धूल और धुएं में बिखरती हैं साँसें,
और आँखों में है नमी की रेखा,
वे मरते हैं चुपचाप कहीं,
सिर्फ चंद सिक्कों की एक अकेली झेखा।

पूंजीवादी इमारत ऊँची होती जाती,
और मज़दूर ज़मीन में दबते जाते,
पर उनके बलिदानों को कौन गिनेगा,
जब सब पैसे के पीछे ही दौड़ते जाते।

कौन सुनेगा उनकी पुकार,
जब पूंजीवाद है अंधा और बहरा,
मज़दूरों के बलिदानों से फलता है ये,
पर फिर भी उन्हें नहीं मिलता सहारा।

- - राहुल कुंवर (समय)




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